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अ॒ष्टा म॒हो दि॒व आदो॒ हरी॑ इ॒ह द्यु॑म्ना॒साह॑म॒भि यो॑धा॒न उत्स॑म्। हरिं॒ यत्ते॑ म॒न्दिनं॑ दु॒क्षन्वृ॒धे गोर॑भस॒मद्रि॑भिर्वा॒ताप्य॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

aṣṭā maho diva ādo harī iha dyumnāsāham abhi yodhāna utsam | hariṁ yat te mandinaṁ dukṣan vṛdhe gorabhasam adribhir vātāpyam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ष्टा। म॒हः। दि॒वः। आदः॑। हरी॒ इति॑। इ॒ह। द्यु॑म्न॒ऽसह॑म्। अ॒भि। यो॒धा॒नः। उत्स॑म्। हरि॑म्। यत्। ते॒। म॒न्दिन॑म्। धु॒क्षन्। वृ॒धे। गोऽर॑भसम्। अद्रि॑ऽभिः। वा॒ताप्य॑म् ॥ १.१२१.८

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:121» मन्त्र:8 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:25» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:18» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! (ते) तुम्हारे (यत्) जो (योधानः) युद्ध करनेवाले (वृधे) सुखों के बढ़ने के लिये जैसे (आदः) रस आदि पदार्थ का भक्षण करने और (अष्टा) सब जगह व्याप्त होनेवाला सूर्यलोक (महः) बड़ी (दिवः) दीप्ति से अपने (हरी) प्रकाश और आकर्षण को (अद्रिभिः) मेघ वा पर्वतों के साथ प्रचरित करता है, वैसे (इह) इस संसार में (उत्सम्) कुएँ को बनाय (द्युम्नसाहम्) जिससे धन सहे जाते अर्थात् मिलते उस (हरिम्) घोड़ा और (मन्दिनम्) मनोहर (वाताप्यम्) शुद्ध वायु से पाने योग्य (गोरभसम्) गौओं के बड़प्पन को (अभि, दुक्षन्) सब प्रकार से पूर्ण करें, वे आपको सत्कार करने योग्य हैं ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! तुम जैसे सूर्य्य अपने प्रकाश से सब जगत् को आनन्द देकर अपनी आकर्षण शक्ति से भूगोल का धारण करता है, वैसे ही नदी, सोता, कुआँ, बावरी, तालाब आदि को बनाकर वन वा पर्वतों में घास आदि को बढ़ा, गौ और घोड़े आदि पशुओं की रक्षा और वृद्धि कर, दूध आदि के सेवन से निरन्तर आनन्द को प्राप्त होओ ॥ ८ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे राजँस्ते यद्योधानो वृध आदोऽष्टा सूर्यो महो दिवो हरी अद्रिभिः प्रचरती वेह उत्सं विधाय द्युम्नसाहं हरिं मन्दिनं वाताप्यं गोरभसमभिदुक्षँस्ते त्वया सत्कर्त्तव्याः ॥ ८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अष्टा) व्यापकः (महः) महतः (दिवः) दीप्त्याः (आदः) अत्ता। अत्र कृतो बहुलमिति कर्त्तरि घञ्। बहुलं छन्दसीति घस्लादेशो न। (हरी) सूर्यस्य प्रकाशाकर्षणे इव (इह) जगति (द्युम्नासाहम्) द्युम्नानि धनानि सहन्ते येन (अभि) (योधानः) योद्धुं शीलाः। अत्रौणादिको निः प्रत्ययः। (उत्सम्) कूपम् (हरिम्) हयम् (यत्) ये ते तव (मन्दिरम्) कमनीयम् (दुक्षन्) अधुक्षन् दुहन्तु प्रपिपुरतु (वृधे) सुखानां वर्धनाय (गोरभसम्) गवां महत्त्वम्। रभस इति महन्ना०। निघं० ३। ३। (अद्रिभिः) मेघैः शैलैर्वा (वाताप्यम्) वातेन शुद्धेन वायुनाप्तुं योग्यम् ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यूयं यथा सूर्यो स्वप्रकाशेन सर्वं जगदानन्द्याकर्षणेन भूगोलं धरति तथैव नदीस्रोतः कूपादीन्निर्माय वनेषु वा घासादिकं वर्द्धयित्वा गोऽश्वादीनां रक्षणवर्द्धने विधाय दुग्धादिसेवनेन सततमानन्दत ॥ ८ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! सूर्य जसा आपल्या प्रकाशाने सर्व जगाला आनंद देतो व आपल्या आकर्षण शक्तीने भूगोल धारण करतो तसेच नदी, नाले, झरे, विहिरी, तलाव इत्यादी बनवून वन किंवा पर्वतावर तृण वाढवून गाई, घोडे इत्यादी पशूंचे रक्षण व वृद्धी करून दूध इत्यादीच्या सेवनाने निरंतर आनंद प्राप्त करावा. ॥ ८ ॥